Posted on: June 11, 2020 Posted by: लिटरेचर इन इंडिया Comments: 0
सआदत हसन मंटो

सआदत हसन मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था. उसके वालिद एक नामी बैरिस्टर और शेसन जज थे.

बचपन से ही मंटो बहुत ज़हीन थे, मगर शरारती भी कम नहीं थे. दाख़िला इम्तहान उसने दो बार फेल होने के बाद पास किया. इसकी एक वजह उनका उर्दू में कमज़ोर होना भी था.

उन्हीं दिनों के आसपास उन्होंने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक ड्रामेटिक क्लब खोला था और आग़ा हश्र का एक ड्रामा स्टेज करने का इरादा किया था.

यह क्लब सिर्फ़ 15-20 रोज़ क़ायम रह सका था क्योंकि मंटो के वालिद साहब ने एक रोज़ धावा बोलकर हारमोनियम और तबले सब तोड़-फोड़ दिए थे और वाज़े अल्फ़ाज़ में बता दिया था कि ऐसे वाहियात शग़ल उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं.

प्रारंभिक पढ़ाई अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में की थी. 1931 में उन्होंने हिंदू सभा कॉलेज में दाख़िला लिया. उन दिनों पूरे भारत देश में और ख़ासतौर से अमृतसर में आज़ादी का आंदोलन पूरे उभार पर था. जब मंटो की उम्र कुल सात साल की थी, जलियांवाला बाग़ का नरसंहार 1919 में हो चुका था. लेकिन उनके बाल मन पर उसकी गहरी छाप थी.

सआदत हसन मंटो का पहला अफ़साना

क्रांतिकारी गतिविधियां बराबर चल रही थीं और गली-गली में “इंक़लाब ज़िदाबाद” के नारे सुनाई पड़ते थे. दूसरे नौजवानों की तरह मंटो भी चाहते थे कि जुलूसों और जलसों में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले और नारे लगाए, लेकिन वालिद के सामने वह मन-मसोसकर रह जाते.

आख़िरकार उनका यह रुझान अदब से मुख़ातिब हो गया. उन्होंने पहला अफ़साना लिखा “तमाशा”, जिसमें जलियाँवाला नरसंहार को एक सात साल के बच्चे की नज़र से देखा गया है. इसके बाद कुछ और अफ़साने भी उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों से प्रेरित होकर लिखे.

1932 में मंटो के वालिद का देहांत हो गया. शहीद-ए-हिंदुस्तान भगत सिंह को उससे पहले ब्रिटिश हुकूमत द्वारा फाँसी दी जा चुकी थी. मंटो ने अपने कमरे में वालिद के फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा-“लाल कमरा.”

Saadat Hasan Manto
Saadat Hasan Manto | Pic Credit – Google

मंटो रूस के साम्यवादी साहित्य से प्रभावित थे

ज़ाहिर है कि रूसी साम्यवादी साहित्य में उनकी दिलचस्पी बढ़ रही थी. इन्हीं दिनों उनकी मुलाक़ात अब्दुल बारी नाम के एक पत्रकार से हुई, जिसने उन्हें रूसी साहित्य के साथ-साथ फ्रांसीसी साहित्य भी पढ़ने के लिए प्रेरित किया जिसके बाद मंटो ने विक्टर ह्यूगो, लॉर्ड लिटन, गोर्की, चेखव, पुश्किन, ऑस्कर वाइल्ड, मोपासां आदि का अध्ययन किया.

अब्दुल बारी की प्रेरणा पर ही उन्होंने विक्टर ह्यूगो के एक ड्रामे “द लास्ट डेज़ ऑफ़ ए कंडेम्ड” का उर्दू में तर्ज़ुमा किया, जो “सरगुज़श्त-ए-असीर” शीर्षक से लाहौर से प्रकाशित हुआ.

यह ड्रामा ह्यूगो ने मृत्युदंड के विरोध में लिखा था, जिसका तर्जुमा करते हुए मंटो ने महसूस किया कि इसमें जो बात कही गई है वह उनके दिल के बहुत क़रीब है. अगर मंटो के अफ़सानों को ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि इस ड्रामे ने उनके रचनाकर्म को कितना प्रभावित किया था.

विक्टर ह्यूगो के इस तर्जुमे के बाद मंटो ने ऑस्कर वाइल्ड से ड्रामे “वेरा” का तर्जुमा शुरू किया

इस ड्रामे की पृष्ठभूमि 1905 का रूस है और इसमें ज़ार की क्रूरताओं के ख़िलाफ़ वहाँ के नौजवानों का विद्रोह ओजपूर्ण भाषा में अंकित किया गया है. इस ड्रामे का मंटो और उनके साथियों के दिलों-दिमाग पर ऐसा असर हुआ कि उन्हें अमृतसर की हर गली में मॉस्को दिखाई देने लगा.

दो ड्रामों का अनुवाद कर लेने के बाद मंटो ने अब्दुल बारी के ही कहने पर रूसी कहानियों का एक संकलन तैयार किया और उन्हें उर्दू में रूपांतरित करके “रूसी अफ़साने” शीर्षक से प्रकाशित करवाया.

इन तमाम अनुवादों और फ्राँसीसी तथा रूसी साहित्य के अध्ययन से मंटो के मन में कुछ मौलिक लिखने की कुलबुलाहट होने लगी, तो उन्होंने पहला अफ़साना लिखा “तमाशा”, जिसका ज़िक्र ऊपर हो चुका है.

सुकून की तलाश और रचना

इधर मंटो की ये साहित्यिक गतिविधियाँ चल रही थीं और उधर उनके दिल में आगे पढ़ने की ख़्वाहिश पैदा हो गई. आख़िर फरवरी 1934 को 22 साल की उम्र में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया. यह यूनिवर्सिटी उन दिनों प्रगतिशील मुस्लिम नौजवानों का गढ़ बनी हुई थी.

अली सरदार जाफ़री से मंटो की मुलाक़ात यहीं हुई और यहाँ के माहौल ने उनके मन में कुलबुलाती रचनात्मकता को उकसाया. उन्होंने अफ़साने लिखने शुरू कर दिए. “तमाशा” के बाद दूसरा अफ़साना उन्होंने “इनक़िलाब पसंद” यहाँ आकर ही लिखा, जो अलीगढ़ मैगज़ीन में प्रकाशित हुआ.

यह मार्च 1935 की बात है. फिर तो सिलसिला शुरू हो गया और 1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, शीर्षक था “आतिशपारे”.

अलीगढ़ में सारी दिलचस्पियों के बावजूद मंटो वहाँ अधिक नहीं ठहर सकें और एक साल पूरा होने से पहले ही अमृतसर लौट गए.

वहाँ से वह लाहौर चले गए , जहाँ उसने कुछ दिन “पारस” नाम के एक अख़बार में काम किया और कुछ दिन के लिए “मुसव्विर” नामक साप्ताहिक का संपादन किया. जनवरी 1941 में दिल्ली आकर ऑल इंडिया रेडियो में काम करना शुरु किया. यहाँ मंटो सिर्फ़ 17 महीने रहें, लेकिन यह अर्सा उनकी रचनात्मकता का स्वर्णकाल था.

मगर उन्हें वहाँ सुकून नाम की कोई चीज़ मयस्सर नहीं हुई और थोड़े ही दिनों में लाहौर को अलविदा कहकर वह बंबई(आज का मुंबई) पहुँच गए . चार साल बंबई में बिताए और कुछ पत्रिकाओं का संपादन तथा फ़िल्मों के लिए लेखन करते रहें.

इस दौरान उनके रेडियो-नाटकों के चार संग्रह प्रकाशित हुए “आओ…”, “मंटो के ड्रामे”, “जनाज़े” तथा “तीन औरतें”. उनके विवादास्पद अफ़सानों का मजमूआ “धुआँ” और समसामियक विषयों पर लिखे गए लेखों का संग्रह “मंटो के मज़ामीन” भी दिल्ली-प्रवास के दौरान ही प्रकाशित हुए. मगर उनकी बेचैन रूह फिर उन्हें मुंबई खींच ले गई.

जुलाई 1942 के आसपास मंटो मुंबई आए और जनवरी 1948 तक वहाँ रहें. फिर वह पाकिस्तान चले गए. मुंबई के इस दूसरे प्रवास में उनका एक बहुत महत्वपूर्ण संग्रह “चुग़द” प्रकाशित हुआ, जिसमें “चुग़द” के अलावा उनका एक बेहद चर्चित अफ़साना “बाबू गोपीनाथ” भी शामिल था.

पाकिस्तान जाने के बाद उनके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें 161 अफ़साने संग्रहीत थे. इन अफ़सानों में “सियाह हाशिए”, “नंगी आवाज़ें”, “लाइसेंस”, “खोल दो”, “टेटवाल का कुत्ता”, “मम्मी”, “टोबा टेक सिंह”, “फुंदने”, “बिजली पहलवान”, “बू”, “ठंडा गोश्त”, “काली शलवार” और “हतक” जैसे तमाम चर्चित अफ़साने शामिल हैं.

मुंबई के अपने पहले और दूसरे प्रवास में मंटो ने साहित्यिक लेखन के अलावा फ़िल्मी पत्रकारिता की और फ़िल्मों के लिए कहानियाँ व पटकथाएँ लिखीं, जिनमें “अपनी नगरिया”, “आठ दिन” व “मिर्ज़ा ग़ालिब” ख़ास तौर पर चर्चित रहीं.

आसिफ़ ने जब पहले-पहल अनारकली के थीम पर फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया, तो मंटो ने आसिफ़ के साथ मिलकर कहानी पर काफ़ी मेहनत की थी, लेकिन उस वक़्त फ़िल्म पर किन्हीं कारणों से काम आगे नहीं बढ़ सका था. बाद में जब उसी थीम पर “मुग़ले-आज़म” के नाम से काम शुरू हुआ, तो मंटो लाहौर जा चुके थे.

यह एक इत्तेफ़ाक ही है कि 18 जनवरी 1955 को जब लाहौर में मंटो का इंतकाल हुआ, तो उनकी लिखी हुई फ़िल्म “मिर्ज़ा ग़ालिब” दिल्ली में हाउसफुल जा रही थी.

सआदत हसन मंटो की कहानियों पर मुक़दमें

अपनी बयालीस साल, आठ महीने और सात दिन की ज़िंदगी में मंटो को लिखने के लिए सिर्फ़ 19 साल मिले और इन 19 सालों में उन्होंने 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 ख़ाके (शब्द चित्र) और 70 लेख लिखे.

कहानियाँ जिन पर मुक़दमे चले – काली शलवार, धुआँ, बू, ठंडा गोश्त, और ‘ऊपर,नीचे और दरमियाँ’

लेकिन रचनाओं की यह गिनती शायद उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी महत्वपूर्ण यह बात है कि उन्होंने 50 बरस पहले जो कुछ लिखा, उसमें आज की हक़ीक़त सिमटी हुई नज़र आती है और यह हक़ीक़त को उन्होंने ऐसी तल्ख़ ज़ुबान में पेश किया कि समाज के अलंबरदारों की नींद हराम हो गई. नतीज़तन उनकी जाँच कहानियों पर मुक़दमे चले, जिनके क्रमवार शीर्षक हैं, “काली शलवार”, “धुआँ”, “बू”, “ठंडा गोश्त” और “ऊपर, नीचे और दरमियाँ”. इन मुक़दमों के दौरान मंटो की ज़िल्लत उठानी पड़ी. अदालतों के चक्कर लगाने पड़ें, लेकिन उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा नहीं रहा.

सआदत हसन मंटो की साहित्य विरासत

स्क्रॉल सत्याग्रह ने अपने लेख में लिखा –

“किसी किताब को हम अगर पढ़ें और वह खोपड़ी पर पड़े हथौड़े की तरह हमें जगा न दे तो हमें उसे क्यों पढना चाहिए? किताब तो बर्फ तोड़ने के हथौड़े की तरह होनी चाहिए जो हमारे भीतर जम गए दरिया को तोड़ सके. मशहूर साहित्यकार फ्रेंज काफ्का के इस कथन को थोड़ा सा हेर-फेर के साथ यूं भी पढ़ा जा सकता है कि कोई लेखक अगर खोपड़ी पर पड़े हथौड़े की तरह हमें जगा न दे तो हम उसे क्यों पढ़ें. यह अलग बात है कि कितने ऐसे होते हैं या हुए कि जिनको इस कसौटी पर लेखक कहा जा सके.

दम लगाकर ढूंढें और कहें तो कह सकते हैं कि एक था – सआदत हसन मंटो”

बीबीसी हिंदी के लिए जुबैर अहमद लिखते हैं – सआदत हसन मंटो से पाकिस्तान डरता है

पिछले सत्तर साल में मंटो की किताबों की मांग लगातार रही है. एक तरह से वह घर-घर में जाना जाने वाला नाम बन गया है.

उनके सम्पूर्ण लेखन की किताबों की जिल्दें लगातार छपती रहती हैं, बार-बार छपती हैं और बिक जाती हैं.

यह भी सचाई है कि मंटो और पाबंदियों का चोली-दमन का साथ रहा है. हर बार उन पर अश्लील होने का इल्ज़ाम लगता रहा है और पाबंदियां लगाई जाती हैं.

बकौल न्यूज़18इण्डिया – सआदत हसन मंटो: ऐसा साहित्यकार जिसे मुल्कों के घेरे नहीं बांध सके

दक्षिण एशिया में सआदत हसन मंटो और फैज़ अहमद फैज़ सब से ज़्यादा पढ़े जाने वाले लेखक है.

स्रोत –

गूगल साइट

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