शहर से गाँव और गाँव से शहर की यात्रा में ज़िंदगी खो-सी गयी। गाँव में घर से स्कूल का बस्ता लेकर निकला हर इंसान यही कोशिश करता है कि पढ़-लिखकर शहर जाएगा। ग़र शहर नहीं पहुँचा तो कम से कम साहब बनकर किसी अन्य ज़िले या राज्य के गाँव में ही नौकरी कर लेगा।
अपने गाँव में रहने की सोच को वो दबा लेता है क्योंकि कितने भी पैसे घर पर कमा ले लेकिन गाँव और नात–रिश्तेदार ‘निठल्ला’ या फिर ‘क्या करता है, घर पर ही तो रहता है’ के विशेषण से नवाज़ देते हैं। इंसान अपने गाँव से दूरी बनाकर शहर को अपनाता है ताकि उसके परिवार को ‘सम्मान’ मिले|
कमरे की चार दीवार में खुद को समेटकर रख लेता है। सुबह दफ़्तर, शाम घर, फिर शाम को सुबह दफ़्तर जाने की चिंता में अपने दिन, महीने, साल काट लेता है। गाँव के खुले आसमान, सूदूर फैलाव वाले खेत-खलिहान की बजाय चार दीवार को तरक़्क़ी समझता है।
क्योंकि उसे परिवार, समाज यही बताता है कि ‘तरक़्क़ी’ का मतलब है ‘शहर’। शहर में एक कमरे का मकान भी तरक़्क़ी का रूपक माना जाता है। वो गाँव छोड़कर शहर आता है कि यह शहर उसे अपना लेगा। यहाँ बसे लोग(जो अधिकांश उसके जैसे ही हैं), उसे अपना लेंगे।
लेकिन यह शहर किसी को नहीं अपनाता। इसकी तलहटी में आप एक कचरा मात्र हैं। जब तक इसे आपकी ज़रूरत है, आपको चकाचौंध की तरह सजाकर रखा जाएगा। ज़रूरत ख़त्म, आप बाहर। इसे पेट की भूख से ज़्यादा अपने स्वरूप पर गर्व है। शहरी बनने की भीड़ में कुछ तो सफल हैं लेकिन अधिकांश असफल।
आज कई सपने टूटें हैं। कई दिल टूटें हैं। एक मोटरी बांधकर शहर को निकला इंसान अब वापस लौट रहा है। गरीब तो भूख की लड़ाई शहर और गाँव दोनों जगह लड़ता है लेकिन इस महामारी ने आम इंसान और मध्यम वर्ग को इस शहर का जो वास्तविक रूप दिखाया है, उसे वो शायद ही भूले।
आज उनके सपने पर लगी धूल झड़ चुकी है। उन्हें शहर ने अपनाने से मना कर दिया है। वो तरक़्क़ी से ज़िंदगी की तरफ़ भाग रहा है। किसी भी तरह गाँव जाना चाहता है| उसे तरक़्क़ी, शहर और ज़िंदगी के बीच ज़िंदगी की अहमियत समझ आने लगी है। गरीब और मध्यम वर्ग को सपने देखने का शायद ही हक़ है।
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