तब काकोरी कांड की सुनवाई कोर्ट में चल रही थी. राम प्रसाद बिस्मिल के ख़िलाफ़ सरकारी वकील थे जगतनारायण मुल्ला. साजिशन बिस्मिल को केस लड़ने के लिए लक्ष्मी शंकर नाम का एक कमज़ोर वकील दिया गया. रामप्रसाद बिस्मिल नें वकील लेने से मना कर दिया और अपना केस ख़ुद लड़ने लगे.
सुनवाई शुरू हुई….बिस्मिल कोर्ट में बोलने लगे…
जज लुइस हैरान हो गया…इतनी कम उम्र और इतने विद्वतापूर्ण तर्क…!
लुइस नें उनकी शानदार अंग्रेजी और कानूनी तर्क सुनकर पूछा, ” मिस्टर बिस्मिल आपने कानून की डिग्री कहाँ से ली है?”
बिस्मिल बोले, “Excuse me sir! a king maker doesn’t require any degree!”
जज लुइस इस जवाब से चिढ़ गया..एक चार दिन के लौंडे की ये मज़ाल?
उसने बिस्मिल द्वारा १८ जुलाई 1927 को दी गयी स्वयं वकालत करने की अर्जी खारिज कर दी. उसके बाद तो जो हुआ वो इतिहास है. बिस्मिल नें अदालत में 76 पृष्ठ की तर्कपूर्ण लिखित बहस पेश कर दी जिसे पढ़ते ही जजों के होश उड़ गए. एक साधारण लड़का और इतना असाधारण विधिवेत्ता कैसे हो सकता है?
आगे क्या कहूँ! बिस्मिल की जीवनी बताना इस पोस्ट का उद्देश्य नहीं है. वो तो आप एक क्लिक पर जान लेंगे.
बल्कि अफ़सोस होता है कि आज़ादी के इतने साल बाद जिसने कभी कोई खेल नहीं खेला उसके नाम पर खेल का राष्ट्रीय पुरस्कार तो है. जो कभी कलाकार नहीं रहीं उनके नाम पर अंतरराष्ट्रीय कला संस्थान भी हैं. जो हाथ मे थर्मामीटर नहीं पकड़े उनके नाम पर सैकड़ों अस्पताल हैं. लेकिन जिसने बिना लॉ की डिग्री लिए कोर्ट और समूची ब्रितानी हुकूमत को हिलाकर रख दिया उसको हम ठीक से याद करना तक भूल गए हैं?
याद करना तो दूर हम उनके बारे में ठीक से जानते तक नहीं हैं.
क्या इस देश में एक “राम प्रसाद बिस्मिल नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी” नहीं होना था? होना था, ज़रूर होना था. लेकिन नहीं हुआ.
मैं कई बार सोचता हूँ और दुःखी होता हूँ कि एक देश नें अपने सच्चे नायकों को किस तरह बिसरा दिया! उनके बलिदान, शौर्य और पराक्रम का उचित सम्मान न किया.
और इधर कैसे एक परिवार नें अपना नामकरण करके प्रतीकात्मक रुप से सड़क से लेकर आकाश तक अपना कब्ज़ा जमा लिया. अपने गाने-बजाने वाले पालक-बालक पाल लिए. इनसे कोई नहीं पूछता कि राजीव गांधी कौन-सा खेल खेलते थे जो उनके नाम पर राष्ट्रीय खेल पुरस्कार है?
इंदिरा जी क्या ध्रुपद गाती थी जो दिल्ली में इतना बड़ा अंतरराष्ट्रीय कला संस्थान बना दिया गया? और सबसे दुःख की बात ये कि जिनको ये सवाल पूछना था उन्होंने छह साल में क्या किया?
क्या इस देश में केवल श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय ही बचें हैं? कितना अच्छा होता…इस देश में आजादी के बाद एक राम प्रसाद बिस्मिल नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी होती. उसमें पढ़ने वाला हर छात्र कठघरे में खड़े होकर लुइस के सामने बहस करनें वाले उस बिस्मिल को याद करता तो उसके रगों का खून जरा तेज हो जाता.
लेकिन ऐसा न हो सका…
हमने फ़र्जी प्रतीक गढ़ दिए. जिनका जिस चीजों से दूर-दूर तक नाता नहीं था उनको उस चीज का जनक बना दिया. लेकिन आप कहेंगे किससे? एक परिवार के ख़िलाफ़ बोलना देशद्रोह जैसा है. वर्तमान सरकार नें छह साल में क्या किया ये भी पूछना भी ख़तरे से खाली कहाँ है?
हाँ कुछ बुद्धिजीवी आएंगे. पूछेंगे क्या होता नाम रख देने से?
होता है सर! नाम का बड़ा मनोवैज्ञानिक असर होता है.
अगर नही होता तो इस देश के संस्थानों पर एक परिवार का सबसे ज़्यादा कब्ज़ा न होता. मुगलों नें सारे शहरों का नाम नहीं बदल दिया होता.
सौ साल पहले चलिए..जरा..एक उदाहरण दूँ.
महामना जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय बनवा रहे थे. तब उन्होंने दुनिया भर के श्रेष्ठ नामों को ख़त लिखा. कि आप आएं और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ाएं. उन नामों आइंस्टीन भी थे और ओंकार नाथ ठाकुर भी. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी थे और सर्वपल्ली राधाकृष्णन और सर सुंदरलाल भी!
आज मेरे जैसा संगीत का छात्र जब कभी बैठता है उस ओंकार नाथ ठाकुर ऑडिटोरियम में तो उनकी मूर्ति के सामने अनायास हाथ जुड़ जातें हैं. एक बार लगता है कि ओह! क्या अद्भुत लोगों ने इन संस्थानो को सींचा है. जहाँ हम पढ़ रहें हैं.
कैसा होता अगर उस आडिटोरियम का नाम महामना के किसी रिश्तेदार के नाम पर रख दिया गया होता? क्या वो भाव मेरे अंदर पैदा हो पाते जो ओंकार नाथ ठाकुर को देखते समय होता है? कत्तई नहीं.
बल्कि ऐसा नामकरण ही मज़ाक होता!
ऐसा ही मजाक सत्तर सालों से हुआ है. अभी भी जारी है.
और हम भूल गए हैं कि कौन था बिस्मिल, कौन थे असफाक, शचीन्द्र नाथ कौन थे! हम बहस कर रहें हैं कि क्या आज़ाद ब्राह्मणवादी थे. भगत सिंह लेनिनवादी ?
हमने अपनी विरासत को एक सिरे से बिसराया है. और दोष हमारा क्या है. साजिशन बिसराने दिया गया. वरना बिना डिग्री लिए जज के सामने बहस करने वाला बिस्मिल क्या किसी लॉ के स्टूडेंट के लिए सबसे बड़ा आदर्श नहीं होता ?
लेकिन हमनें फेक हीरो बना लिए.
कभी सोचकर देखिएगा. एक नौजवान को आजादी के लिए ट्रेन लूटने का षड्यंत्र करके ब्रितानी हुकूमत की चूलें भी हिलानी हैं और रात-रात भर जगकर साहित्य, इतिहास की दर्जनों किताबें भी लिखनीं थीं और छापकर उन्हें बांटना भी था. और आज़ादी के लिए न सिर्फ़ गीत लिखने हैं बल्कि शेरो-शायरी भी करनी है. कोर्ट में केस भी लड़ना है और अपनी वक़ालत भी करनी है.
कहतें हैं उसी काकोरी कांड के दौरान मुकदमा लखनऊ में चल रहा था. जगतनारायण मुल्ला सरकारी वकील के साथ उर्दू के शायर भी थे. दुर्योग से उन्होंने अभियुक्तों के लिये “मुल्जिमान” की जगह “मुलाजिम” शब्द बोल दिया.
फिर क्या था, पण्डित राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ ने तपाक से जबाब दिया-
“मुलाजिम हमको मत कहिये, बड़ा अफ़सोस होता है;
अदालत के अदब से हम यहाँ तशरीफ लाये हैं।
पलट देते हैं हम मौजे-हवादिस अपनी जुर्रत से;
कि हमने आँधियों में भी चिराग अक्सर जलाये हैं।”
आज बस दुःख होता कि आंधियों में चिराग़ जलाने वाला बिस्मिल फाँसी पर चढ़ गया और उनके विरुद्ध खड़े अंग्रेज़ वकील और कांग्रेस नेता जगतनारायण मुल्ला कई पुश्त बना बैठे.
आजादी बाद उनके बेटे आनंद नारायण मुल्ला स्वतंत्र भारत मे न्यायाधीश बने, इक़बाल सम्मान प्राप्त कर गए और कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा भी पहुँचे.
और आप तो शायद जानते भी नहीं होंगे कि आज बिस्मिल का जन्मदिन है.
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