पूरी रात सो न सका वो विभत्स मंज़र देख कर, सोचा कि अगर नैन्सी सच में आज कुछ लिख पाती तो यही लिखती:
नमस्कार!
मैं नैन्सी की लाश बोल रही हूँ…
श्श्श्श…आत्मा।
मैं तो लाश थी… सड़ गयी पर आख़िर कैसे आप सभी का ज़मीर सड़ गया?
मैं अपने पापा की गुड़िया थी…अम्माँ की परी…लेकिन जिन दरिंदों ने मुझे नोचा, फाड़ा, हवस से जला दिया, वो दरिंदे अभी भी मौज से घूम रहें है, कहीं किसी और नैन्सी की तलाश में निकल गये होंगे।
समाज उनका, सरकार उनकी, शासन उनका, प्रशासन उनका। मैं तो ग़रीब मास्टर की बेटी थी, जिसकी ग़लती बस इतनी थी कि उसने समाज में शिक्षा का बीड़ा उठाया।
मेरे साथ हवस को ठंडा कर, वो दरिंदे मेरी गर्दन को फाड़ कर अलग कर दिए। मेरे कटे हुए गले से टप-टप गिरते रक्त ने न जाने क्यों इस धरती माँ के कलेजे में दर्द पैदा नहीं किया! मैं तड़पती रही, चिल्लाती रही, अपने नन्हें-नन्हें हाथ-पैर को चलाती रही और न जाने कब मैं नींद में सो गयी…ऐसी नींद जो अब शायद कभी नहीं टूटेगी।
मेरी रोती हुई आत्मा और मर चुके शरीर को वो दरिंदे नदी में फेंक आए। सब सो रहे थे और मेरे माँ-पापा मुझे रात भर खोजते रहे, मेरे भाई मेरी राह ताकते दरवाज़े पर सो गये।
सुबह उठे तो देखा कि अभी भी हमारा वो समाज सो रहा है जो अब मोमबत्तियाँ लेकर सड़कों पर उतरने की तैयारी करेगा।
सब सोते रहे पर मैं जागती रही… पूरे १२ दिन उसी नदी के पानी में। मेरे शरीर की सड़न से उठती दुर्गन्ध से मेरी आत्मा कुत्सित हो उठी थी, मेरी माँ की आवाज़ मेरे कानों तक आ रही थी पर मेरी आवाज़ अभी भी मुझ तक ही दब कर रह जा रही थी।
अभी भी सरकार, पुलिस और समाज सो रहा है। आख़िर कब लोग नींद से जागेंगे? क्या मुझे न्याय मिलेगा? क्या मेरे साथ दरिंदगी करने वालों को सज़ा मिलेगी?
आख़िर पुलिस इतनी नकारा कैसे सकती है? आख़िर सरकार इतनी ख़ुदगर्ज़ कैसे सकती है?
“ये लौ की आँच तुझ तक भी पहुँचेगी,
तू अंधेरे की आड़ में कब तलक छुप सकेगा?”
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आपकी बेटी/बहन नैन्सी
(लेखक लिटरेचर इन इंडिया के प्रधान सम्पादक हैं)
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