इलाचन्द्र जोशी का जन्म 12 दिसम्बर 1902 को अलमोड़ा जिले में ब्राह्मण परिवार मे हुआ। जोशी जी का परिवार बहुत विद्वान था। इनके बाबा बल्लभचन्द्र जोशी ने अपने अध्ययन के लिए बहुत बड़ा पुस्तकालय अलमोड़ा में खुलवाया था, जिसमें श्रीवृध्दि की इलाचन्द्र जोशी के बड़े भाई डॉ. हेमचन्द्र जोशी ने। आपने विदेशी धरती पर जाकर भाषा विज्ञान में शोध कार्य किया और पहले भाषा वैज्ञानिक हुए जिन्हें डॉक्टर लिखने का गौरव प्राप्त हुआ। डॉ. हेमचन्द्र जोशी हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठित विद्वान थे, जिन्हें सारा भारत एवं हिन्दी जगत जानता और पहचानता है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य एवं मनोविज्ञान की दुनिया में अपनी पहचान बनाने वालों में सर्वप्रथम जो नाम आता है वह इलाचन्द्र जोशी का है। ये बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इन्होंने विभिन्न विधाओं पर गंभीर रचनाएं हिन्दी साहित्य को दिया। जोशी जी के पाठकों को जोशी साहित्य पर गर्व है कि उन्होंने उनकी रचनाओं को पढ़ने का अवसर प्राप्त किया।
जब फ्रायड का नाम विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों तक ही सीमित था तब जोशीजी ने हिन्दी में पहले पहल मनोविश्लेषण प्रधान उपन्यासों की परम्परा का सूत्रपात किया। चरित्रों के भाव जगत के सूक्ष्म विश्लेषण में उनके उपन्यास बेजोड़ हैं। सच्चाई तो इसी बात की है कि मनुष्य के जीवन में मन से सम्बन्धित संकल्प-विकल्प, निर्णय आदि का फैसला करना महत्वपूर्ण है। व्यक्ति ऐसा न करे तो उसमें एवं पशु में क्या अंतर रह जाएगा? क्योंकि समयानुसार पशु भी भोजन, पानी, निद्रा, मैथुन, उठना, बैठना आदि क्रियाओं में लिप्त रहता है। मन के आधार पर ही मनुष्य मननशील, अध्ययनशील, विचारक एवं चिंतक बनता है। फिर भी जोशीजी की यह विशेषता थी कि वे अध्ययनशील होते हुए भी दार्शनिकता से बच गए। उनके पात्रों की यही विशेषता है कि वे निरंतर विद्रोही भावना नहीं रखते इसका उदाहरण ‘प्रेत और छाया’ उपन्यास का नायक पारसनाथ हैं।
प्राय: ऐसे बहुत से चर्चित पुस्तकालय होते हैं जिनके द्वारा पाठक को नई दिशा एवं ज्ञान प्राप्त होता है। कुछ ऐसा ही सम्बन्ध जोशीजी के साथ है। उन्होंने हिन्दी, बंगला, अंग्रेजी, संस्कृत एवं जर्मन भाषा का ज्ञान अपने पुस्तकालय के माध्यम से बचपन से ही प्राप्त करते रहे। जोशीजी ने कई कहानियां अंग्रेजी में भी लिखीं। रामानन्द चटर्जी के ‘मॉडर्ेन रिव्यु’ में जोशीजी के अनेक लेख छपे जो बहुचर्चित हुए। यह बहुत महत्वपूर्ण बात थी कि इनके लेख पत्रिका यूनाइटेड एशिया में प्रकाशित हुए। इनके प्रकाशनों को पाठकों ने बहुत सराहा और महत्व दिया।
जोशीजी के जीवन-संघर्ष का इतिहास बहुत लम्बा है। बचपन में पिता की मृत्यु, आर्थिक संकट का बने रहना, नौकरी करना और न करना छोड़ना और पकड़ना उनका स्वभाव बन गया था। जोशीजी अपने अतिथि को देखकर बहुत प्रसन्नचित्त रहते। उनके अतिथि वास्तव में उनके भगवान होते थे- वे कहते भी थे कि न जाने किस गरीब के भेष में मुझे मेरा भगवान मिल जाए। जोशीजी का उपन्यास ‘जहाज का पंछी’ का नायक या मैं स्वयं जोशीजी की अपनी कहानी है। रोजी-रोटी की खोज में नायक कलकत्ता जाता है। इस महानगर में वहां कहां जाएं, क्या खाएं और कहां निवास बनाएं।
जोशीजी उपन्यास में नायक के माध्यम से कहलाते हैं- सच मानिए कलकत्ते में पांव रखते ही जिस चिंता ने सबसे पहले मेरे मन पर आघात किया वह पेट से सम्बन्धित न होकर निवास से सम्बन्धित थी। ‘क्या खाऊं?’ यह प्रश्न मेरे मन में बाद में उठा ‘कहा जाऊं?’ यह प्रश्न प्रधान बनकर पहले ही क्षण मेरी छाती पर चढ़कर बैठ गया।…. पास ही चना, चिउड़ा, मूंगफली और इसी तरह की दूसरी चीजों से सजे हुए खोमचों की ओर ललकती आंखों से देखता रहता, मुंह में पानी भर आता, पर आंखों का पानी सूख गया था।
नायक का शरीर निरंतर कमजोर होता जा रहा था। एक दिन वह बेहोश हो जाता है और उसे उठाकर लोग अस्पताल पहुंचा देते हैं, जहां उसे बिस्तर और खाना प्राप्त हो जाता है। वहां उसे प्यारे नामक धोबी से अपनी व्यथा कहने का अवसर मिलता है, वह कहता है ‘यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं अस्पताल में और कुछ दिन न रह सका अगर वहां कुछ दिन और रहता तो मुझे खाने और ठहरने की चिंता न रहती, और तब तक मैं अपने लिए दूसरी कोई व्यवस्था कर लेता।’
जोशीजी का सारा जीवन संघर्षमय रहा फिर भी उन्हें सदैव पैसे काटते थे। ये जोशी की दान प्रवृत्ति का प्रभाव था। रुपयों से उन्हें घृणा थी। जहाज का पंछी उपन्यास के नायक की समस्या को वो अपनी ही समस्या बताते हैं। सारी कथा नायक के इर्द-गिर्द घूमती है। नायक को जब भी कहीं से कुछ पैसे प्राप्त होते हैं वह तुरंत दूसरों पर खर्च कर देता है और जब तक उसका पूरा पैसा खर्च नहीं हो जाता है उसको चैन नहीं मिलती। इसका उदाहरण जहाज का पंछी उपन्यास में इस प्रकार है- ”मैं बहुत दिनों से बेकार हूं बहुत कोशिश करने पर भी कहीं कोई काम नहीं मिल पाता। न कहीं मेरे रहने का ठिकाना है, न भोजन का।
रात में किसी फुटपाथ पर या किसी पार्क में या किले के मैदान में पड़ा रहता है। कभी चना चबाने को मिल जाता है तो चबा लेता हूं, नहीं तो भूखा ही रह जाता हूं। क्या आप किसी सरकारी दफ्तर में मेरी नौकरी लगा देंगे?…” जहाज का पंछी की एक पात्रा हैं डॉ. लीला। नायक के भाषण से बहुत अधिक प्रभावित होती हैं तथा उससे कहती हैं- ”मैं सोचती हूं कि रसोइए से आप को एकदम मुक्ति देकर हम लोगों द्वारा आयोजित संगीत सम्मेलन में गाने-बजाने और सांस्कृतिक गोष्ठियों में भाषण देने के लिए क्यों न नियुक्त कर लूं। आपका वेतन भी इस उच्च स्तर की नौकरी के लिए रसोइए की अपेक्षा काफी अच्छा रहेगा।”
इलाचन्द्र जोशी अपने जीवनकाल में कदम-कदम पर कठिनाइयों का सामना करते रहे। गरीबी मजबूरी और परेशानियों ने उन्हें ऐसा बना दिया था कि कलकत्ता का हर आदमी उन्हें चोर, गिरहकट और आवारा समझता था वहीं दूसरी ओर वे अपनी गरीबी और भूख की मार के विषय में जहाज का पंछी का नायक कहता है-”धीरे-धीरे मेरा भूख से थकित शरीर अवश होता चला आ रहा था। बैठने की शक्ति मुझ में नहीं रह गई थी। बेंच खाली पड़ा था, मैं लेटने ही जा रहा था कि सहसा सामने बाईं ओर से वही सांवले रंग और गोलाकार चेहरे वाला मोटा सा लड़का आता दिखाई दिया।…उसके पीछे-पीछे पुलिस का एक आदमी चला आ रहा था। मेरे पास आते ही वह लड़का ठहर गया और मेरी ओर संकेत करते पुलिस वाले से बोला- ‘यही है, मेरी जेब से बटुआ निकालकर गायब कर लेना चाहता था’ … एक आदमी बोला…’मैं भी कई दिनों से इस आदमी को मार्क कर रहा हूं। पहले दिन ही इसे देखते ही मैं समझ गया था कि यह घिसा हुआ गिरहकट है। क्या जमाना आया है। इन चोट्टों की संख्या दिन पर दिन बढ़ती चली जा रही है। सालों ने अच्छे आराम का पेशा अख्तियार किया है।”
जोशीजी के आय के साधन बहुत कम थे। जो आमदनी थी वह लेखन से थी। घर चलाने में भी कठिनाई का सामना करना पड़ता था। पांच प्राणी, पति-पत्नि, तीन बेटे कुछ और बच्चे, रिश्तेदारों के, जो पहाड़ से इलाहबाद पढ़ने के लिए आए थे; जोशी परिवार के संग रहते थे। इस प्रकार उनका परिवार बढ़ गया, जिसके कारण मुश्किल से जरूरतें पूरी होती थीं। जोशीजी के घर में अब जख्मी आदमी भी रहने लगा।
एक आदमी के और बढ़ जाने से उनकी आर्थिक परिस्थितियां और अधिक कठिनाई उत्पन्न करने लगीं। जोशीजी तो फीकी चाय पीने लगे थे, किंतु उस घायल व्यक्ति के लिए खूब मीठी चाय बनवाने लगे क्योंकि वह बहुत मीठी चाय पीता था। हर सम्भव सहायता एवं सेवा जोशी परिवार ने उस आदमी की, लेकिन अचानक एक रात वह आदमी भाग गया। जोशीजी उसकी खोजबीन कर निराश हो चुपचाप बैठ गए।
उनकी पत्नी उनसे बहुत नाराज हुईं। झगड़ा भी करती रहीं और कहा-”आप कैसे-कैसे लोगों की सेवा करवाते हैं, जो कृतज्ञता की बात करना तो दूर बिना बताए ही चले जाते हैं।” उत्तर में जोशी ने बस इतना कहा-”हमें नहीं मालूम, भगवान हमको किस रूप में मिल जाते हैं।” जोशीजी सबके दुख दर्द में शामिल रहते थे। दूसरों का दु:ख उनका अपना दुख होता था।
कुछ दिनों के बाद लंगड़ा आदमी इलाचन्द्र जोशी का घर पूछता हुआ मिन्टो रोड वाले मकान पर पहुंचा। अपने साथ फल, मेवा, मिठाई आदि देने के लिए साथ लाया था। जब वह जोशीजी के घर पहुंचा तो उसे कोई पहचान नहीं पाया था क्योंकि उसने नया पैर लगवा लिया था। वह छपरा जिले में अध्यापक हो गया था। श्रीमती जोशी ने पूछ ही लिया कि ”तुम भागकर क्यों गए, यदि बताकर जाते तो हम लोग इतना परेशान न होते”-सटपटाकर वह बोला-”मैं आप लोगों के स्नेह बंधन में ऐसा फंस गया था कि बताकर जाता तो आप लोगों द्वारा रोक लिए जाने का भय था यही सोचकर मैं धीरे से खिसक गया। आप लोगों की असीमित सेवाओं से मैं फिर इस योग्य हो गया हूं कि अपने आठ बच्चों की देखभाल करने लगा। आप सब ने मुझे नया जीवन दिया है। मेरे बच्चे अनाथ होने से बच गए।”
सम्पादक इलाचन्द्र जोशी-तेरह वर्ष की आयु में जोशीजी ने हस्तलिखित पत्रिका ‘सुधा’ का प्रकाशन संभाला। दैनिक कलकत्ता समाचार के सम्पादकीय विभाग में रहे। निरालाजी ने जोशीजी के संबंध में कहा था-”पं. इलाचन्द्र जोशी प्रसिध्द सम्पादक एवं लेखक हैं। लोगों को मालूम है कि श्री जोशी किस प्रकार संघर्ष करके विश्वामित्र का प्रकाशन कराया था। उसी समय से पाठकों का सम्मान उन्हें प्राप्त होने लगा और वे लोगों के दिलों में बसने लगे।”
उन्होंने सफलतापूर्वक प्रयाग से ‘संगम’ एवं बम्बई से ‘धर्मयुग’ का प्रकाशन किया। वे धर्मयुग के प्रथम सम्पादक रहे। ‘चाँद’ का सम्पादन उन्होंने महादेवीजी के साथ किया। वे ‘विश्ववाणी’ ‘सुधा’ ‘भारत संगम’ एवं साहित्यकार के सम्पादक रहे।पत्रकार इलाचंद्र जोशी-पत्रकारिता में जोशीजी किसी भी हालत में किसी भी समय पीछे नहीं रहे। वे स्वच्छन्द विचारधारा का प्रयोग करते रहे। फिल्म से लेकर साहित्य एवं सांस्कृतिक इतिहास तक को वे स्थान देते थे।
इस संदर्भ में डॉ. धर्मवीर भारती का कहना था, ”आश्चर्य की बात है कि जोशीजी अपने समय के सफलतम पत्रकारों में से हैं। क्यों, क्यों भगवान जाने। जोशीजी सदैव दूसरों के लिए लड़ते रहे। इसमें उनका नुकसान भी होता रहा, परंतु वे अपने विषय में झगड़ा न करके लेखकों के समुचित पारिश्रमिक के लिए झगड़ा करते थे। जोशीजी गुटबन्दी से अपने को सदैव दूर रखते थे। वे सदैव सच्चाई की लड़ाई लड़ते थे।
उनकी ईमानदारी भले ही दूसरों को दुराग्रह लगे, वे उसकी चिंता नहीं करते थे।”विशाल व्यक्तित्व: जोशीजी विशाल व्यक्तित्व के मालिक थे। बिना किसी के कुछ पूछे दूसरों के विषय में सिर्फ चेहरा देखकर सब कुछ बता देते थे। नई पीढ़ी के लेखकों को सदैव प्रोत्सहित करते थे। देखिए भाई जोशी की प्रति बहन महादेवी की भावनाएं- ”भाई इलाचन्द्र जोशी का व्यक्तित्व ऐसा ही है जो सौ-सौ बार तपा पर गला नहीं। सहस्त्रों आघात झेले पर बिखरे नहीं।” काव्य, निबंध, कहानी, उपन्यास, आलोचना सभी क्षेत्रों में उनकी देन महत्वपूर्ण है। वे आने वाले पीढ़ी को सदैव मार्गदर्शन देते रहते थे।
श्री हरि का कहना है कि ”जोशीजी के तपस्वी और साधक व्यक्तित्व से सदा ही प्रेरणा और प्रकाश मिला, उनका साहित्य पढ़कर मैंने बहुत कुछ सीखा।”प्रेमचन्द्र ने अपनी कहानियों में सामाजिक कुरीतियों के बाह्य जगत के उद्धाटित किया है, परंतु इलाचन्द्र जोशी ने व्यक्ति के बाह्य जगत से कहीं अधिक महत्व आन्तरिक जगत को दिया है।
निबंधकार इलाचन्द्र जोशी-कहानी, उपन्यास, कविता में जो ख्याति उन्हें मिली है उसमें किसी भी हाल में उनके निबंध कम नहीं हैं। साहित्य को सशक्त बनाने में उन निबन्धों का अमूल्य योगदान है। जोशीजी ने निबन्धों की रचना तब की जब हिन्दी अपने सीमित परिवेश से निकल कर पूरे देश में फैल चुकी थी। वह बचपन से अध्ययनशील थे। कुछ भी लिखने के पूर्व उसका सूक्ष्म व गहन विचार करने के पश्चात ही वे लिखते थे। वे शब्दों के आडम्बर से सदैव बचते थे। यदि हुक्का, सिगरेट, गांजा, भांग से लेकर स्वर्ग-नरक पर भी लिखते तो उसमें साहित्यिक रूप-रंग दमक लाने के लिए कलम तोड़ काम करते थे।
इस सम्बन्ध में लक्ष्मीकांत वर्मा के विचार इस प्रकार हैं, ”हिन्दी साहित्य में अभी तक निबन्धकारों के प्रति आलोचकों ने विशेष ध्यान नहीं दिया है। जब कभी हिन्दी निबन्ध शैली के विकास का इतिहास लिखा जाएगा तब जोशीजी की अवहेलना करना कठिन होगा। तब इसमें जोशीजी का विशेष स्थान होगा। क्योंकि जोशीजी के लेखन से ही उस परम्परा का सूत्र मिलेगा जो आज की आधुनिक निबन्ध शैली में निखर कर अनेक रूपों में प्रस्तुत हुई है।”
आलोचक इलाचन्द्र जोशी- जोशीजी ने ‘मेघदूत’, ‘हैमलेट’ प्राचीन युग का छायावादी नाटक ‘मृच्छकटिकम्’, ‘मानवध’ में एवं ‘चन्द्रीदास’ आदि अपने निबन्धों में वे प्रखर आलोचक के रूप में ही दीख पड़ते हैं। आधुनिक साहित्य पर भी जोशीजी ने व्यंग्यात्मक शैली में आलोचनाएं लिखी हैं। जैसे ‘कामायनी’, शरतचंद्र की ‘प्रतिमा’, ‘चिरयुवा’, ‘चिरंजीवी’ रवीन्द्रनाथ, पंत, निराला, महादेवी, छायावादी कविता का विनाश, आधुनिक उपन्यास का दृष्टिकोण आदि। समीक्षक होने के लिए स्पष्टवादी होना आवश्यक है। जोशीजी में यही विशेषता थी। सच्चाई का पर्दाफाश करने में वे जरा भी संकोच नहीं करते थे।
छायावाद के विषय में जोशीजी लिखते हैं- ”छायावादी युग ने कवियों को अंतर्लोक की गहनता में डुबोकर एकांत आत्मविचन्तन में मग्न कर दिया था और सामूहिक जीव की विराट वास्तविकता से साहित्य संस्कार को विमुख कर दिया था। जीवन से विच्छिन्न होकर कोई भी भावधारा चाहे वह कैसी ही सुंदर क्यों न हो, अंत में कल्याणकारी सिध्द नहीं हो सकती।”
कवि इलाचन्द्र जोशी-”जोशीजी की साहित्यिक यात्रा कविता से प्रारंभ होती है। वह पूर्णत: कवि थे। कविताएं लिखते रहते तो प्रसाद से कम किसी भी परिस्थिति में उनकी रचना न होती। प्रश्न तो यही है कि जो बात बिना लाग लपेट के वह कहानी एवं उपन्यास में कह सकते थे वह कविता में कहना असंभव था, अत: उन्होंने इस विधा को छोड़कर कहानी एवं उपन्यास में ख्याति अर्जित की।”
जोशीजी के व्यक्तित्व पर रवीन्द्रनाथ टैगोर के व्यक्तित्व का प्रभाव रहा तथा सदैव उन्हें लिखते रहने की प्रेरणा शरतचंद्र से मिलती रही। जिसमें उनके लेखन में निखार आता रहा। इलाचंद्र जोशी को उनकी अमिट सेवाओं के लिए देश की अनेक संस्थानों जैसे हिन्दी साहित्य सम्मेलन इलाहाबाद में तथा हिन्दी संस्थान लखनऊ उ.प्र. ने उन्हें विशिष्ट सेवा के लिए सम्मानित किया, फिर भी मैं यही कहूंगा कि जोशीजी की सेवाएं महान हैं। उसे चाहे जिस दृष्टिकोण से देखा जाए चारों ओर से वह लाभकारी ही दिखाई पड़ती है। मगर भारत की समीक्षकों, चिंतकों, साहित्यकारों ने उनका सही मूल्यांकन नहीं किया उल्टे बिना सोचे समझे उन पर आरोप ही लगाए गए हैं।
आज जोशीजी हमारे बीच नहीं हैं फिर भी उनकी रचनाओं ने उन्हें हिन्दी जगत में अमर कर दिया। 1952 में सर अमरनाथ झा ने कहा था- ”इलाचन्द्र जोशी ने जो सेवा हिन्दी की है और कर रहे हैं उसको हम भूल नहीं सकते।” उनकी रचनाओं के लिए हम सदा यहीं कहेंगे-
”आज नहीं हो तुम धरती के पासअन्तरिक्ष में तुम, वाणी का भण्डार हमारे पास हे अमरदेव, रचनाधर्मी, उपन्यासकार मन:विश्लेषणकारी इलाचंद्र तुम्हें नमस्कार।”
माने जाते हैं। जोशी जी ने अधिकांश साहित्यकारों की तरह अपनी साहित्यिक यात्रा काव्य-रचना से ही आरम्भ की। पर्वतीय-जीवन विशेषकर वनस्पतियों से आच्छादित अल्मोड़ा और उसके आस-पास के पर्वत-शिखरों ने और हिमालय के जलप्रपातों एवं घाटियों ने, झीलों और नदियों ने इनकी काव्यात्मक संवेदना को सदा जागृत रखा। प्रतिभा सम्पन्न जोशी जी बाल्यकाल से ही प्रतिभा के धनी थे। उत्तरांचल में जन्मे होने के कारण, वहाँ के प्राकृतिक वातावरण का इनके चिन्तन पर बहुत प्रभाव पड़ा। अध्ययन में रुचि रखन वाले इलाचन्द्र जोशी ने छोटी उम्र में ही भारतीय महाकाव्यों के साथ-साथ विदेश के प्रमुख कवियों और उपन्यासकारों की रचनाओं का अध्ययन कर लिया था। औपचारिक शिक्षा में रुचि न होने के कारण इनकी स्कूली शिक्षा मैट्रिक के आगे नहीं हो सकी, परन्तु स्वाध्याय से ही इन्होंने अनेक भाषाएँ सीखीं। घर का वातावरण छोड़कर इलाचन्द्र जोशी कोलकाता पहुँचे। वहाँ उनका सम्पर्क शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय से हुआ।
इलाचन्द्र जोशी के उपन्यास
1.लज़्ज़ा(1929)
इसमें पूर्व में ‘घृणामयी’ शीर्षक से प्रकाशित लज्जा’ में लज्जा नामक आधुनिका, शिक्षित नारी की काम भावना का वर्णन किया गया है
2.सन्यासी(1941)
इस उपन्यास में नायक नंदकिशोर के अहम भाव एवं कालांतर में अहम भाव का उन्नयन दिखाया गया है
3.पर्दे की रानी(1941)
इस उपन्यास में खूनी पिता और वेश्या पुत्री नायिका निरंजना की समाज के प्रति घृणा और प्रतिहिंसा भाव की अभिव्यक्ति गई है
4.प्रेत और छाया(1946)
इसमें नायक पारसनाथ की हीन भावना एवं स्त्री जाति के प्रति घृणा का भाव दिखाया गया है
5.निर्वासित(1948)
इस उपन्यास में महीप नामक प्रेमी की भावुकता निराशावादिता का एवं दुखद अंत को कहानी के माध्यम से चित्रण किया गया है
6. मुक्तिपथ(1950)
इसमें कथानायक राजीव और विधवा सुनंदा की प्रेमकथा सामाजिक कटाक्ष के कारण शरणार्थी बस्ती में जाना ,राजीव का सामाजिक कार्य में व्यस्तता और सुनंदा की उपेक्षा के फलस्वरुप सुनंदा की वापसी को दिखाया गया है
7.जिप्सी(1952)
इस उपन्यास में जिप्सी बालिका मनिया की कुंठा और अंत में कुंठा का उदात्तीकरण दर्शाया गया है
8.सुबह के भूले(1952)
गुलबिया नामक एक साधारण किसान पुत्र की अभिनेत्री बनने एवं वहां के कृत्रिम जीवन से उठकर पुनः ग्रामीण परिवेश में लौटने की कथा का वर्णन किया गया है
9. जहाज का पंछी(1955)
इस उपन्यास में कथानायक शिक्षित नवयुवक का कोलकाता में नगर रूपी जहाज में ज्योतिषी, ट्यूटर ,धोबी के मुनीम ,रसोइए ,चकले ,लीला के सेवक इत्यादि के रूप में विविध जीवन स्थितियों एवं संघर्षों का वर्णन किया गया है
10.ऋतुचक्र(1969)
इसमें आधुनिक दबावों के फल स्वरुप परंपरागत मूल्यों, मान्यताओं ,आदर्शों के तेजी से ढहने एवं उनके स्थान पर नए मूल्यों आदर्शों के निर्माण न होने की कथा का वर्णन किया गया है
कहानी
धूपरेखा, दीवाली और होली, रोमांटिक छाया, आहुति, खँडहर की आत्माएँ, डायरी के नीरस पृष्ठ, कटीले फूल लजीले कांटे।
समालोचना तथा निबन्ध
साहित्य सर्जना, विवेचना, विश्लेषण, साहित्य चिंतन, शरतचंद्र-व्यक्ति और कलाकार, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, देखा-परखा।
सम्मान और पुरस्कार
इलाचंद्र जोशी को उनके जीवन में कई पुरस्कार और सम्मान मिले थे। उन्हें उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ‘ऋतुचक्र’ उपन्यास पर प्रेमचन्द पुरस्कार 1969-70 ई. में मिला। उन्हें साहित्य वाचस्पति की उपाधि 1979 ई. में प्रदान की गई।
निधन
इलाचंद्र का 14 दिसंबर, 1982 को इलाहाबाद में निधन हो गया था।