Author: लिटरेचर इन इंडिया

Posted on: January 22, 2015 Posted by: लिटरेचर इन इंडिया Comments: 0

मेरी भाषा के लोग – केदारनाथ सिंह

मेरी भाषा के लोग मेरी सड़क के लोग हैं सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग पिछली रात मैंने एक सपना देखा कि दुनिया के सारे लोग एक बस में बैठे हैं और हिन्दी बोल रहे हैं फिर वह पीली-सी बस हवा में गायब हो गई और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिन्दी जो अन्तिम सिक्के की तरह हमेशा बच जाती है मेरे पास हर मुश्किल में कहती वह…

Posted on: January 22, 2015 Posted by: लिटरेचर इन इंडिया Comments: 0

कोई ये कैसे बताये के वो तन्हा क्यों है – कैफ़ी आज़मी

कोई ये कैसे बताये के वो तन्हा क्यों हैं वो जो अपना था वो ही और किसी का क्यों हैं यही दुनिया है तो फिर ऐसी ये दुनिया क्यों हैं यही होता हैं तो आखिर यही होता क्यों हैं एक ज़रा हाथ बढ़ा, दे तो पकड़ लें दामन उसके सीने में समा जाये हमारी धड़कन इतनी क़ुर्बत हैं तो फिर फ़ासला इतना क्यों हैं दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब…

Posted on: January 22, 2015 Posted by: लिटरेचर इन इंडिया Comments: 0

भाई की चिठ्ठी – एकांत श्रीवास्तव

हर पंक्ति जैसे फूलों की क्यारी है जिसमें छुपे काँटों को वह नहीं जानता वह नहीं जानता कि दो शब्दों के बीच भयंकर साँपों की फुँफकार है और डोल रही है वहाँ यम की परछाईं उसने लिखी होगी यह चिट्ठी धानी धूप में हेमंत की यह जाने बिना कि जब यह पहुँचेगी गंतव्य तक भद्रा के मेघ घिर आए होंगे आकाश में। अगर आप भी लिखते है तो हमें ज़रूर…

Posted on: January 22, 2015 Posted by: लिटरेचर इन इंडिया Comments: 0

भारत ज़मीन का टुकड़ा नहीं – अटल बिहारी वाजपेयी

भारत जमीन का टुकड़ा नहीं, जीता जागता राष्ट्रपुरुष है। हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है, पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं। पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघायें हैं। कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है। यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है, यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है। इसका कंकर-कंकर शंकर है, इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है। हम जियेंगे तो…

Posted on: January 22, 2015 Posted by: लिटरेचर इन इंडिया Comments: 0

मेरे देश की आँखें – अज्ञेय

नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं पुते गालों के ऊपर नकली भवों के नीचे छाया प्यार के छलावे बिछाती मुकुर से उठाई हुई मुस्कान मुस्कुराती ये आँखें – नहीं, ये मेरे देश की नहीं हैं… तनाव से झुर्रियाँ पड़ी कोरों की दरार से शरारे छोड़ती घृणा से सिकुड़ी पुतलियाँ – नहीं, ये मेरे देश की आँखें नहीं हैं… वन डालियों के बीच से चौंकी अनपहचानी कभी झाँकती…

Posted on: January 22, 2015 Posted by: लिटरेचर इन इंडिया Comments: 0

क्या किया आजतक क्या पाया – हरिशंकर परसाई

मैं सोच रहा, सिर पर अपार दिन, मास, वर्ष का धरे भार पल, प्रतिपल का अंबार लगा आखिर पाया तो क्या पाया? जब तान छिड़ी, मैं बोल उठा जब थाप पड़ी, पग डोल उठा औरों के स्वर में स्वर भर कर अब तक गाया तो क्या गाया? सब लुटा विश्व को रंक हुआ रीता तब मेरा अंक हुआ दाता से फिर याचक बनकर कण-कण पाया तो क्या पाया? जिस ओर…

Posted on: January 22, 2015 Posted by: लिटरेचर इन इंडिया Comments: 0

लो दिन बीता लो रात गयी – हरिवंश राय बच्चन

सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा, डूबा, संध्या आई, छाई, सौ संध्या सी वह संध्या थी, क्यों उठते-उठते सोचा था दिन में होगी कुछ बात नई लो दिन बीता, लो रात गई धीमे-धीमे तारे निकले, धीरे-धीरे नभ में फ़ैले, सौ रजनी सी वह रजनी थी, क्यों संध्या को यह सोचा था, निशि में होगी कुछ बात नई, लो दिन बीता, लो रात गई चिडियाँ चहकी, कलियाँ महकी, पूरब से फ़िर सूरज…