Author: दीपक सिंह

Posted on: June 13, 2020 Posted by: दीपक सिंह Comments: 0

जो भी कमज़ोर हैं मुश्किलों में हैं सब

जो भी कमज़ोर हैं मुश्किलों में हैं सब सियासतदारों ने तो मुँह हैं उधर कर लिया किससे बोले अब हम किसको बताएँ ये सब दिलों के कोनों में सियासत ने ज़हर भर दिया काफी मुद्दत से जो न हम कह सके उससे हमको ही उसने बेख़बर कर दिया अब लिखते हैं तो कम पढ़तें हैं लोग हवा के झोकों ने बेफिकर कर दिया कोई बताये ये जाकर उनसे कभी रात…

Posted on: June 2, 2020 Posted by: दीपक सिंह Comments: 0

हरिशंकर परसाई की आत्महत्या

बात उन दिनों की है जब शक्तिमान और रामायण धारावाहिक शुरू नहीं हुए थे. जब कम्प्यूटर भारत में नहीं आया था और न ही टीवी ने घरों में अपना बैनामा करवाया था. उन दिनों वामपंथ, समाजवाद, हिंदुवाद के बीच कांग्रेस पिस रही थी और इन सभी के बीच जनता. परसाई जी अपने बरामदे में खटिया अड़ाकर रेडियो पर समाचार सुन रहे थे कि वीपी सिंह और चंद्रशेखर में से…

Posted on: June 2, 2020 Posted by: दीपक सिंह Comments: 0

शहर से गाँव

शहर से गाँव और गाँव से शहर की यात्रा में ज़िंदगी खो-सी गयी। गाँव में घर से स्कूल का बस्ता लेकर निकला हर इंसान यही कोशिश करता है कि पढ़-लिखकर शहर जाएगा। ग़र शहर नहीं पहुँचा तो कम से कम साहब बनकर किसी अन्य ज़िले या राज्य के गाँव में ही नौकरी कर लेगा। अपने गाँव में रहने की सोच को वो दबा लेता है क्योंकि कितने भी पैसे…

Posted on: March 4, 2018 Posted by: दीपक सिंह Comments: 2

डर के गठबंधन पर दूरगामी प्रश्नचिन्ह

लगभग दो दशक यानि 1993 के बाद, देश के दो सबसे बड़े क्षेत्रीय दल अपने अस्तित्व को बचाने की कवायद में फिर से एक हो चले हैं| बसपा के संस्थापक कांशीराम और मुलायम सिंह यादव की दोस्ती जब परवान चढ़ी थी तो उस वक़्त मुलायम सिंह यादव द्वारा अस्तित्व में आई समाजवादी पार्टी उत्तरप्रदेश की राजनीति में पाँव ज़माने की कोशिश में लगी हुई थी| यह दौर जातिगत समीकरण को…

Posted on: June 1, 2017 Posted by: दीपक सिंह Comments: 0

मैं नैन्सी की लाश बोल रही हूँ

पूरी रात सो न सका वो विभत्स मंज़र देख कर, सोचा कि अगर नैन्सी सच में आज कुछ लिख पाती तो यही लिखती: नमस्कार! मैं नैन्सी की लाश बोल रही हूँ… श्श्श्श…आत्मा। मैं तो लाश थी… सड़ गयी पर आख़िर कैसे आप सभी का ज़मीर सड़ गया? मैं अपने पापा की गुड़िया थी…अम्माँ की परी…लेकिन जिन दरिंदों ने मुझे नोचा, फाड़ा, हवस से जला दिया, वो दरिंदे अभी भी मौज…

Posted on: June 24, 2016 Posted by: दीपक सिंह Comments: 0

माओवाद सही भी है, गलत भी…बस नज़रिए का फर्क है

नई दिल्ली से धनबाद की यात्रा पर हूँ| लोगों से बहुत सुना था कि झारखंड प्राकृतिक सौन्दर्य को अभी भी संवारे हुए है, इसलिए प्रकृति के इस नायाब करिश्मे और सुन्दरता को देखने का मन हुआ| बहुत सोचने के बाद तय किया कि भारतीय रेल से यात्रा की जाय क्यूंकि रेल की पटरियों के किनारे ही आपको आधी सुन्दरता का दर्शन हो जाएगा| तो फिर क्या था, मैं ठहरा महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन का अनुयायी, चुनाव आते ही अम्बेडकरवाद में पगलाए मेरे देश के नेताओं और लेखकों से कहीं दूर….सैर कर दुनिया की गाफ़िल जिंदगानी फिर कहाँ….को महसूस करने…वास्तव में असली लेखक वही है जो प्रकृति और मानव विज्ञान में निहित प्रेम के दर्पण में खुद की मानवता का प्रतिबिम्ब उद्धृत कर ले| मैंने भी इसी परिपाटी को आगे बढाने की ठानी| मैंने भी सोचा क्यूँ न एक लेखक होने के नाते महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन हो जाया जाय| अथाह सुख की अनुभूति है प्रकृति की बाहों में|

इसी बीच जब मेरे अंदर का मानव जाग जाता है तो मेरी निगाहें पास बैठे लोगों के पास पहुँच जाती है…कुछ लोग मस्त हवा के आनंद में इस कदर जन्म भर से थकाए है कि उंघ रहे है…कुछ दुसरे के कंधे पर सर मार कर सो रहे है और मैं एक बन्दर की तरह सब सुत्तक्कड़ो के बीच प्रकृति की सुन्दरता ही निहार रहा कर अघा रहा हूँ| भले ही ढंग से हिंदी न आती हो लेकिन सुबह होते ही सबके हाथ में टाइम्स ऑफ़ इंडिया, द हिन्दू और द टेलीग्राफ है| मेरे हाथ में सब अमर उजाला देख कर यूँ घुर रहे है जैसे मैं भारत में नहीं रूस के किसी ट्रेन के डिब्बे में बैठ कर हिंदी अखबार को सबकी निगाहों में चुभने के लिए खोल दिया हूँ| खैर ज्यादा पढ़े – लिखे लोग खतरनाक होते है इसलिए मैं अपनी निगाहों को फिलहाल अपने अखबार में ही समेट कर रखा हूँ| इसी बीच ट्रेन के बीच कुछ अतिसज्जन लोग घुस कर बोल रहे है कि “तनी खिसका हो, काहें इतना दूरे ले बैठल हवा, हमनो के तनी स जगह चाही मतलब चाही…बुझाइल|”